Wednesday, May 12, 2010

आरज़ू

तू कैसा तेरा मैक़दा कैसा साकी,
तुझसे मिलकर भी है अब प्यास बाकी|

अब क्या करेगें मैक़दे का साकी|
पीने की आरज़ू अब तशनगी बाकी|

जब दो क़दम चलने को है मजबूर,
सफरे शौक अब मंज़िले तलब बाकी|

गुलिस्ताँ को लग गई खिजा की नज़र,
फूलों में शगुफ्तगी अब ताज़गी बाकी|

खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
रंजो अलम अब दर्दो सितम बाकी|

इस खुदपरस्त जहां में अब 'शकील',
दोस्ती किसी से अब दुश्मनी बाकी|

Friday, May 7, 2010

बिजलियाँ

हम पर ये ज़ुल्मत कहाँ तक,
ये जफ़ा ये सितम कहाँ तक|

ये तेरे हुस्न की अदाए है' शकील',
तेरा ग़म आख़िर उठाये कहाँ तक|

सितम है या करम आजमाए कहाँ तक,
ज़ख्मे दिल अपने गिनाये कहाँ तक|

तोहमत है हम पर बे-वफाई का तेरा,
गिला अपने दिल का सुनाये कहाँ तक|

ये हुस्नों अदायों की घटाए कहाँ तक,
ये बिजलियाँ हम पर गिरेगीं कहाँ तक|

Thursday, May 6, 2010

बेगाना

इश्क़ में लोग हमें दीवाना कहने लगे ,
अपने ही खुद हमें बेगाना कहने लगे|

आशिक़ों को कब बख्शा है ज़माने ने,
हर अदा को ही आशिक़ाना कहने लगे|

जो गुज़रे हम तेरे दर से जब एक दम,
तेरे दर को हमारा आस्ताना कहने लगे|

इश्क़ तो फ़ित्रत है इंसा के मिज़ाज की,
क्यों सब हमें उनका दीवाना कहने लगे|

किसका ज़ोर चला है भला इश्क़ पर,
मुहब्बत को क्यों ग़म उठाना कहने लगे|

हुस्न को है कहाँ तबो-ताब इश्क़ के बिना,
क्यों हमारे कलाम को सूफ़ियाना कहने लगे|

फ़ना है हर ज़र्रा इस कायनाते जहाँ का,
हमारे इश्क़ को क्यों अफसाना कहने लगे|

ख़ुदा महफूज़ रखे इश्क़ को हर दिल में,
हमारे दिल को क्यों आशियाना कहने लगे|

आखों में कशिश,सीने में तपिश है फित्रते दिल,
फिर क्यों'शकील' हमें सब दीवाना कहने लगे|

Wednesday, May 5, 2010

आवारगी

मै से सेर होती है हर रोज़ तशनगी मेरी,
खूब मज़े से गुज़र रही है अब ज़िंदगी मेरी|


पूजता हूँ बुतखाने में जाकर देवताओं को,
ख़ुदा वाहिद पर मुनहसिर कहाँ बंदगी मेरी|


जिससे चाहता हूँ तबियत बहलाता हूँ अपनी,
जिससे चाहता हूँ बुझा लेता हूँ दिल लगी |


मन्ज़िलों से भी आगे मन्ज़िले ज़िंदगी मेरी,
मन्ज़िल की जुस्तजू है अब आवारगी मेरी|


मै भी पीता हूँ और साकी भी है साथ मेरे ,
बड़ा ही लुत्फ़ देती है ज़िंदगी-ए-मैकशी मेरी|


पी के बदा अक्सर नशे में डूबा रहता हूँ,
कितनी महफूज़ है गर्दिशे दौरा से बेखुदी मेरी|


हशोखिरद को भी अब है ज़रूरत मेरी,
हसद है ज़माने को अब जिन्दज़ी मेरी|


मेरी परवाज़ में बलान्दियाँ है फ़लक की'शकील'
आसमाँ पर मुतमव्विज़ है अब दीवानगी मेरी|

(
मै-शराब, तशनगी-शराब की प्यास, सेर-संतुष्टि, वाहिद-केवल एक, बदा- शराब,हशोखिरद- अक्ल और तमीज़, मुतमव्विज़- मौज मारता हुआ, हसद-ईर्ष्या

Sunday, April 25, 2010

मिज़ाजे ग़म

मिज़ाजे ग़म की जिन्हें कोई ख़बर नही होती,
ख़ुशी में भी कही उन्हें ख़ुशी मय्यसर नही होती|

जो जलते है चिराग़ बन के तेरी महफिल में,
उनके घर में कभी चिरागे रौशनी नही होती|

ग़म-- इश्क में जब तक हुस्न शामिल हो,
ग़म-- मोहब्बत में कभी दिलकशी नही होती|

बे-वफाई के इस जहाँ में वफ़ा का नाम ले,
वफ़ा के नाम से अब हमें कोई ख़ुशी नही होती|

मेहरबनिया तो बड़ी चीज़ है दोस्ती के पहलू में,
दुश्मनी में भी तो अब कुछ शाइस्दगी नही होती|

शरीके ग़म बनाने चले हो जहाँ में किसे 'शकील'
शरीके ग़म ये दुनिया कभी किसी के नही होती|

उम्रे हयात

उम्रे हयात की जब शाम आती है,
नमाज़ तौबा काम आती है|

तेरी रहबरी भी रहज़नी से कम नही,
मेरी आवारगी भी रहनुमाई के काम आती है|

उजाला ही नही सब कुछ राहे तमन्ना में,
तीरगी हो तो अक्सर बसीरत काम आती है|

समझ लेते है हम मुश्किलों को मुसीबत,
मुश्किलें ही अक्सर मुसीबतों के काम आती है|

उनकी वादा खिलाफी पे है क्यो हंगामा बरपा,
खुदगर्ज़ी भी तो आज़माने के काम आती है|

वफ़ा की तो सब करते है उम्मीद 'शकील',
बे-वफाई भी तो दुश्मनी निभाने के काम आती है|

( हयात-ज़िंदगी,रहबरी-पथ-प्रदर्शन,रहज़नी-लूटेरापन,
तीरगी-अंधकार,बसीरत-दिल की नज़र/प्रतिभा,खुदगर्ज़ी-स्वार्थपरता )

Friday, April 23, 2010

यार

तुम दिल में यार बन के रहते हो,
तन्हाइयों में ख़याल बन के रहते हो|

दिलों की कशिश कहाँ है नुमायाँ,
जिगर में तुम दर्द बन के रहते हो|

चेनो-करार से तौबा मेरी तौबा ,
सकून में भी बेचेन बन के रहते हो|

नजरे मिले या झुके ज़मी पर,
तुम आँखों में नूर बन के रहते हो|

शब की तारिकियों में है सन्नाटा ,
नींद में तुम ख्वाब बन के रहते हो|

गमे जुदाई हो या मिलन की ख़ुशी,
तुम दिल में लहू बन के रहते हो|

किस को सुनाये दास्ताँ--दिल,
तुम कहीं रहो मगर नज़र में रहते हो|

यूँ तो तग़य्युराते ख़याल है बहुत,
मगर तुम तसव्वुर बन के रहते हो|

ये ज़रूरी नहीं'शकील' तुम कुछ कहो,
खामोश मगर तुम जुबां पर रहते हो|

( तग़य्युराते-बदलाव )

Thursday, April 22, 2010

हसरत

पड़ी थी अभी बुनियाद आशियाने की,
सिमट के आगई सब बिजलियाँ ज़माने की|

जवानी में था जब जोश--मैयकशी अपना,
बड़ी हसीन थी दुनिया शराबखाने की|

परवाज़ ने ली थी अंगडाई अभी शबाब की,
नज़र लग गई हुसन पे सय्यादे कैदखाने की|

किसी से कीजिये क्या रस्मे दोस्ती का गिला,
बदल रही हैं मुकर्रम हवाये ज़माने की|

हसरत थी चुनने की सरसब्द गुलिस्ताने 'शकील',
दिल की दिल में रह गई हसरत दीवाने की|

( सरसब्द-फूलों की टोकरी में सबसे खुबसूरत और उत्तम फूल )

Saturday, April 17, 2010

कामयाब

वही रहरौं जहदे ज़िन्दगी में कामरां होगें,
इरादे जिनके पुख्ता हौसले जवाँ होगें|

जो हौसले रखते ही मौसमे खिज़ां मे,
वो ही कल इस चमन के बागबाँ होगें|

लुटा दे अपनी हस्ती जो वतन के लिए ,
वो ही इस ज़मीं के कल शाहंशाह होगें|

जो देते सहारा किसी को हर हाल मे,
वो ही'शकील'हर राज़ के राजदां होगें|

संभल जाओं वतन के रखवालों,
वरना हस्ती तारीख़ के निशाँ होगें|

(रहरौं -मुसाफिर,जहदे-कोशिश, कामरां -कामयाब)

Thursday, April 15, 2010

सफ़र-ए- कारवाँ

निकले थे राहे ख़ुदा में,आलमे मैख्वार मिल गया,
पूछा था मस्जिद का पता कि मैकदा मिल गया|

निगाहे यास को जब कोई गुलिस्ताँ मिल गया,
बहारे-सराब में विरान --खिजाँ मिल गया |

इश्क़ को ताब कहाँ सोज़े हुस्न का जहाँ में,
दिखते ही जलवा--हुस्न दीवाना मिल गया |

जलती है शमा शब की तारीकियों में सारी शब,
एहले जुनून में जलने को परवाना मिल गया |

निकले थे हम अपनों की तलाश में ' शकील ',
सफ़र-- कारवाँ ही सारा बैगाना मिल गया |

(आलमे मैख्वार-शराबियों का समूह,मैकदा-मधुशाला,
निगाहे यास-नवमल्लिका की दृष्ठि, ताब-गर्मी,
शब की तारिकिया-रात का अँधेरा,बहारे सराब-बसंत ऋतु का भ्रम,
सोज़े हुस्न-सौन्दर्य की तपिश)

बे-वफाई

मुझ पर तेरी ज़ुल्मत कहाँ तक,
ये जफ़ा ये सितम कहाँ तक|

ये तेरे हुस्न की अदाए है याराँ,
तेरा ग़म आख़िर उठाये कहाँ तक|

सितम है या करम आजमाए कहाँ तक,
ज़ख्मे दिल अपने गिनाये कहाँ तक|

तोहमत है हम पर बे-वफाई का तेरा,
गिला अपने दिल का सुनाये कहाँ तक|

ये हुस्नों अदायों की घटाए कहाँ तक,
ये बिजलियाँ हम पर'शकील' गिरेगीं कहाँ तक|

Wednesday, April 14, 2010

यारों की मेहरबानी

परहेज़गारों को छोड़ा और मैख्वारों में पहुँचा,
ख्वाहिशे मै के ख़ातिर गुनहगारों में पहुँचा|

चमन में रहता था गुलशने यार होता था,
खारजारों में पहुँचा, बयाबानों में पहुँचा|

मैं बेगाना था रिन्दों की महफ़िल में कभी,
ग़नीमत है की महफिले मैख्वारों में पहुँचा|

अगर यहाँ मै से प्यार भी एक जुर्म है यारों,
फ़िर तो खातावारों में,सितमगरों में पहुँचा|

महलों के रंगीन नज़ारे कल की बात थी,
साकी के ज़ुल्मत भरे नाज्ज़रों में पहुँचा|

जो चाहते है पुर सकूँ ज़िन्दगी, उनको मुबारक हो,
मंजिले जुस्तजू था मैं की आवारों में पहुँचा|

भटकता फ़िर रहा था आरज़ू--मंजील में'शकील',
यह यारों की मेहरबानी है की में यारों में पहुँचा|

Tuesday, April 13, 2010

मुहब्बत

मुहब्बत की कहाँ कोई ज़बाँ होती है,
दिल की बात नज़रों से बयाँ होती है|

दिले बेताबियों का आलम मत पूछो,
नज़रों में फिर भी हया वफ़ा होती है|

ज़माने की बंदिशे हो चाहे लाख,
मुहब्बत तो हर रोज़ जवाँ होती है|

क्यों पूछते हो हाले दिल उनका,
हर हाल पर उनके निगाहाँ होती है|

मिट जाये चाहे जमाने में खुद की हस्ती,
मुहब्बत फिर भी बेगुनाहाँ होती है|

मुहब्बते मर्ज़ तो मर्ज़ है दिल का'शकील',
कहाँ इलाज कहाँ कोई शिफ़ा होती है|

Monday, April 5, 2010

मैकशी

तेरे मैकदे से मुझे फिर ठुकराया गया है,
मैकशी से तेरे मैकदे में लाया गया है

लोग पीते है लड़खड़ाते हैं तेरे मैखाने में,
जामे-पैमाने से मुझे होश में लाया गया है

मैख्वार तो बहुत हैं तेरे मैखाने में साकी,
तेरे मैखाने में मुझे क्यों आज़माया गया है

मय्यसर है लबालब मै तेरे मैकदे में साकी,
मेरे होठो से लगा जाम क्यों हटाया गया है

लोग खाते है क़सम रोज़ न पीने की 'शकील',
मेरी मै-तौबा को आखिर क्यों तुड़वाया गया है

Friday, March 26, 2010

निगाहें

तेरी निगाहें जिसके सीने से गुज़र जायगी,
ख़ुद जायगी गुज़र,पर सीने में ज़ख्म कर जायगी|

ये दुनिया है मुसाफिरखाना हर कोई जायगा,
एक ज़िंदगी आयगी तो दूसरी बेख़बर जायगी|

जाने कब ये ज़िंदगी गुज़र जायगी,
जायगी जिस वक्त सब को ख़बर कर जायगी|

तेरी हस्ती है बुलबुला, है उम्र का एक हिसाब,
कौन जाने कब एक दम यहाँ से कूच कर जायगी|

जो दे गया एक मुस्कराहट बाग में आकर एक गुल,
देखना गुंचे के सौ टुकड़े, ज़िंदगी कर जायगी|

इम्तिहाँ लेती नही शमा ख़ुद जलकर परवानों का,
क्या ख़बर थी कि ज़िंदगी यूँ खेरात कर जायगी|

ख़ुद--ख़ुद खींच लायगी ज़िंदगी अपनी फ़ना,
बाकी का काम 'शकील' मौत कर जायगी|

Wednesday, March 24, 2010

इम्तिहाँ

चमन से दूर है गुलों का नाम अभी,
की इन्क्लाबे गुलशन है नातमाम अभी|

राहों से दूर मंज़िल का है मुक़ाम अभी,
कदमों को दे और क़ुव्वते रफ़्तार अभी|

क़दम-क़दम पे जहाँ होगा इम्तिहाँ अभी,
मिलेगें राह में ऐसे कुछ मुक़ाम अभी|

अभी तलब को कहाँ कैफे आगाही अभी,
कुछ एहेले अक्ल ले और जुनून से काम अभी|

हर गुल पर नज़र है बागबां की 'शकील',
की गुलिस्ताँ में है हजारों सितमगार अभी|

फ़लक

मै से सेर होती है हर रोज़ तशनगी मेरी,
खूब मज़े से गुज़र रही है अब ज़िंदगी मेरी|


पूजता हूँ बुतखाने में जाकर देवताओं को,
ख़ुदा वाहिद पर मुनहसिर कहाँ बंदगी मेरी|


जिससे चाहता हूँ तबियत बहलाता हूँ अपनी,
जिससे चाहता हूँ बुझा लेता हूँ दिल लगी मेरी|


मन्ज़िलों से भी आगे मन्ज़िले ज़िंदगी मेरी,
मन्ज़िल की जुस्तजू है अब आवारगी मेरी|


मै भी पीता हूँ और साकी भी है साथ मेरे ,
बड़ा ही लुत्फ़ देती है ज़िंदगी--मैकशी मेरी|


पी के बदा अक्सर नशे में डूबा रहता हूँ,
कितनी महफूज़ है गर्दिशे दौरा से बेखुदी मेरी|


हशोखिरद को भी अब है ज़रूरत मेरी,
हसद है ज़माने को अब जिन्दज़ी मेरी|


मेरी परवाज़ में बलान्दियाँ है फ़लक की'शकील'
आसमाँ पर मुतमव्विज़ है अब दीवानगी मेरी|

(मै-शराब, तशनगी-शराब की प्यास, सेर-संतुष्टि, वाहिद-केवल एक, बदा- शराब,हशोखिरद- अक्ल और तमीज़, मुतमव्विज़- मौज मारता हुआ, हसद-ईर्ष्या )

Friday, March 19, 2010

बलंदियो

कुछ कर गुज़र इस क़दर,
कि शोहरत भी तेरा नाम पूछे|

परवाज़ कर उन बलंदियो पर,
कि फ़राज़ भी तेरा नाम पूछे|

लोग राह तय कर ,
मन्ज़िलो पर कयाम करते है|

तू कुछ इस क़दर कर 'शकील'
कि मन्ज़िल तेरा कयाम पूछे|

तोड़ दे सारी किस्मतों करम की बंदिशे,
जो पूछे हकों इंसाफ तो तेरा दर पूछे|


अशर्फुले मख्लूक

यूँ तो हर तरफ है हमारे आदमी ही आदमी,
पर नहीं कोई ग़म मे साथ देने वाला आदमी|

अशर्फुले मख्लूक है इस जहाँ मे आदमी,
पर होता है मुहताज न जाने कब आदमी का आदमी|

जो गया लोट कर न आये,तो किससे पूछे हाले आदमी,
रहते है किस हाल में दुनिया के उस पार आदमी|

है बेकार सारी कोशिशे उरूज,है क़िस्मत का मारा आदमी,
जब तलक क़िस्मत न चमकाए,न चमके आदमी|

ग़म का बोझ कब उठाते है फ़रिश्ते 'शकील',
ग़मज़दा है क़ायनात में आदमी से आदमी|

Thursday, March 11, 2010

नशा

हम जब तेरे दस्त से गुज़र जाते है,
चेहरे पर निशाने ग़म उभर जाते है|

हमने तो पाया इश्क़ मे नशा-ए-क़दीम,
वो कैसे नशे होते जो है उतर जाते है|

इतने खौफ़ जदा है मै से शेख़ साहिब,
नाम मैकदे का लेते है तो डर जाते है|

मैकदा बंद और साक़ी भी है परेशां,
देखना है कि अब रिंद किधर जाते है|

शबे हुस्न से सीख लीजिए निज़ामे जहाँ'शकील',
सहर सादिक ही खुद ब खुद संवर जाते है|


Wednesday, January 27, 2010

तिरंगा

दुनिया में सबसे न्यारा है,
तिरंगा हम सब को प्यारा है|

हम सब तुझ पर कुर्बान,
तू वतन का पहरेदार हमारा है|

तेरी शान हमारी आन है,
तुझ पर सलाम हमारा है|

तेरे रंगों को अहसास सारा है,
वतन को दिया तेरा नारा है|

तू यूँ ही शान से लहराता रहे,
यही सिर्फ अरमाँ हमारा है|

तू अमन का आलामदर है,
किरदार-ए- हिंद तू हमारा है|

तू इंसानियत का पैगाम है,
इसमें रंग नहीं लहू हमारा है|

Monday, January 25, 2010

रहनुमाई

उम्रे हयात की जब शाम आती है,
नमाज़ तौबा कम आती है|

तेरी रहबरी भी रहज़नी से कम नही,
मेरी आवारगी भी रहनुमाई के काम आती है|

उजाला ही नही सब कुछ राहे तमन्ना में,
तीरगी हो तो अक्सर बसीरत काम आती है|

समझ लेते है हम मुश्किलों को मुसीबत,
मुश्किलें ही अक्सर मुसीबतों के काम आती है|

उनकी वादा खिलाफी पे है क्यो हंगामा बरपा,
खुदगर्ज़ी भी तो आज़माने के काम आती है|

वफ़ा की तो सब करते है उम्मीद 'शकील',
बे-वफाई भी तो दुश्मनी निभाने के काम आती है|

( हयात-ज़िंदगी,रहबरी-पथ-प्रदर्शन,रहज़नी-लूटेरापन,
तीरगी-अंधकार,बसीरत-दिल की नज़र/प्रतिभा,खुदगर्ज़ी-स्वार्थपरता )

Tuesday, January 5, 2010

साहिले-ए-दरिया

आज वो भी ग़म के मारे नज़र आने लगे,
उड़ गई नींद इशक़ में तारे नज़र आने लगे|

लब खामोश, दिल परेशाँ, आंखों में नींद,
अब तो वो कुछ ज़्यादा प्यारे नज़र आने लगे|

लबों से अब वो भी साजे इशक़ गुनगुनाने लगे,
आँखों ही आँखों में वो न जाने क्यों शर्माने लगे|

हम तो समझते थे उनको दरिया- ए- तूफाँ,
आज हमे वो साहिल-ए-दरिया नज़र आने लगे|

कल तलक था उनका खुद दिल पर इख़्तियार,
आज वो ही'शकील' दिल के मारे नज़र आने लगे|