Wednesday, May 12, 2010

आरज़ू

तू कैसा तेरा मैक़दा कैसा साकी,
तुझसे मिलकर भी है अब प्यास बाकी|

अब क्या करेगें मैक़दे का साकी|
पीने की आरज़ू अब तशनगी बाकी|

जब दो क़दम चलने को है मजबूर,
सफरे शौक अब मंज़िले तलब बाकी|

गुलिस्ताँ को लग गई खिजा की नज़र,
फूलों में शगुफ्तगी अब ताज़गी बाकी|

खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
रंजो अलम अब दर्दो सितम बाकी|

इस खुदपरस्त जहां में अब 'शकील',
दोस्ती किसी से अब दुश्मनी बाकी|

1 comment:

  1. खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
    न रंजो अलम न अब दर्दो सितम बाकी|
    bahut achchha hai sir

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