Wednesday, March 6, 2013

शुक्रिया

कहाँ -कहाँ सिज़दा करूँ माँगने के लिए ,
उठते नहीं हाथ मेरे अब दुआ के लिए ।

ये भी क्या खुदगर्ज़ी है तेरी गर्दिशे हयात ,
 मेरा ही घर बचा था तेरे इम्तिहं के लिए ।

उम्रे हयात तो है अपनी गमे दौरा के लिए ,
चन्द लम्हात माँगे थे सिर्फ ख़ुशी के लिए ।

इन्तिहे सितम है ये तेरा जहाँ को देने वाले ,
हमारे नसीब में ग़म, ख़ुशी सज़ा के लिए । 

अब नहीं फुर्सत शकील हमें दुआ के लिए ,
मेरी खुददारी अब है  तेरे शुक्रिया के लिए ।


Monday, March 4, 2013

चाह

मेरे ग़मे इशक़  की अब कोई इंतिहा  नहीं ,
ये वो निशाँ है जिसका अब कोई गवाहा नहीं ।

ज़ख़्म है गेहेर मगर इनकी कोई ज़बां नहीं ,
वो कोनसा ज़ख़्म  है जो हम ने सहा नहीं ।

मर्ज़े  दर्द है गहरा इसकी अब कोई दवा नहीं ,
इस शदीद दर्द  से हमें अब कोई शिफ़ा नहीं ।

लबो पर नाम है उनका मगर कोई पता नहीं ,
ये वो सवाल है जिसका अब कोई रास्ता नही ।

आरज़ू ए मंज़िल  है मगर मुकामे जहाँ नहीं ,
रास्ते बहुत है 'शकील' अब कोई चाह  नहीं 



Sunday, March 3, 2013

नफ़्स

कर ली तामीरे  देरो -हरम की तो क्या ?
आदमी ख़ुद तो नफ़्स का बंदा ही रहा।

मै तो चलता रहा बच बच कर फिर भी ,
खारे सेहरा दामन से उलझता ही रहा ।

खोफ़े ख़ुदा की तो बात करता है बंदा,
गुनाहओं से फिर भी वबस्ता ही रहा ।

सुबह -शाम मंजिल पर रहा मै कायम,
सहर-सादिक सफ़र में भटकता ही रहा ।

तह्ज़ीबो का दावा किया बहुत शकील ,
शैतानी फित्रतों में मै मुब्तिला  ही रहा ।