Friday, July 31, 2009

रंगे-ऐ-ज़िन्दगी

बहारों खिजां की नशेबोफराजियाँ माज़ अल्लाह,
कभी चमन से तो कभी खार जार से गुज़रे|

क्या-क्या रंग देखे मैखान-ऐ- जहाँ में हमने,
कभी सोचो फ़िक्र से तो कभी कैफ़ो खुमार से गुज़रे|

उम्र भर पाया न सुराग़ तेरे ऐ ज़िन्दगी हमने,
तेरी तलाश में किस-किस दयार से गुज़रे|

कभी तशनगी कभी मैकशी अजब है ये ज़िन्दगी,
कभी हवाये नासाज़गार से तो कभी फिज़ाए खुशगवार से गुज़रे|

कितने दिलचस्प मर्हला है सफ़र का ये ज़िन्दगी,
कभी मंजिले हयात से तो कभी सरेदार से गुज़रे|

कभी तन्हाईओं का तो कभी सोह्बतो का रंग है ज़िन्दगी,
कभी विसाल से तो कभी इंतजार-ऐ-यार से गुज़रे|

कभी सितम की तो कभी मेहरबानियों की पैकर है ज़िन्दगी,
कभी नाखुशी से तो कभी 'शकील' खुशगवारी से गुज़रे|

सरसब्द

पड़ी न थी अभी बुनियाद आशियाने की,
सिमट के आगई सब बिजलियाँ ज़माने की|

जवानी में था जब जोश-ऐ-मैयकशी अपना,
बड़ी हसीन थी दुनिया शराबखाने की|

परवाज़ ने ली थी अंगडाई अभी शबाब की,
नज़र लग गई हुसन पे सय्यादे कैदखाने की|

किसी से कीजिये क्या रस्मे दोस्ती का गिला,
बदल रही हैं मुकर्रम हवाये ज़माने की|

हसरत थी चुनने की सरसब्द गुलिस्ताने 'शकील',
दिल की दिल में रह गई हसरत दीवाने की|

( सरसब्द-फूलों की टोकरी में सबसे खुबसूरत और उत्तम फूल )

Monday, July 27, 2009

हकीक़त

ज़िन्दगी की हकीक़त जब रौशन होती है,
अंधेरों में ज़िन्दगी गुज़र गई होती है|

बेदारी तो लाज़िम है नींद के बाद,
ज़िन्दगी ख्वाबों में गुज़र गई होती है|

शब की तारिकियों में न उलझ सितारों में,
सेहरे इंतजार में रात गुज़र गई होती|

उम्रे शबाब में तो कहाँ फुर्सत होती है,
होश आने पर उम्र गुज़र गई होती है|

ख़बर जब होती है तेरे तिलिस्म की 'शकील',
हयाते आरज़ू ख़ुद जुस्तजू बन गई होती है|

Sunday, July 19, 2009

ग़म

मिज़ाजे ग़म की जिन्हें ख़बर नही होती,
ख़ुशी में भी उन्हें ख़ुशी मय्यसर नही होती|

जो जलते है चिराग़ बन के तेरी महफिल में,
उनके घर में कभी रौशनी नही होती|

ग़म-ऐ- इश्क में जब तक न हुस्न शामिल हो,
ग़म-ऐ- मोहब्बत में कभी दिलकशी नही होती|

बे-वफाई के इस जहाँ में वफ़ा का नाम न ले,
वफ़ा के नाम से अब हमें ख़ुशी नही होती|

मेहरबनिया तो बड़ी चीज़ है इंसानियत के पहलू में,
दुश्मनी में भी तो अब शाइस्दगी नही होती|

शरीक़-ऐ- गम बनाने चले हो किसे 'शकील'
शरीक़-ऐ- ग़म ये दुनिया कभी नही होती|

Saturday, July 18, 2009

सलीका

सलीका कहाँ था अहले- दुनिया को जीने का,
जीने वालों को करीने की हमने अदा दी है|

ख़ुद रहे तशन लब मगर उठे घटा बन कर,
इस तरह प्यास सहरा की हमने बुझा दी है|

कभी शराब तो कभी मय बने तशनगी तेरे खातिर,
रिन्दों को मय तो सहरा को हमने घटा दी है|

कभी तूफां को कभी मझधार को हौसलों को अदा दी है,
इस तरह साहिल को हमने आबरू की सदा दी है|

बने शम्शो कार शमाओ 'शकील',
नूर बन कर अंधेरों को हमने जिला दी है|

Wednesday, July 15, 2009

वक़्त

वक़्त जिससे खफा हो जाए,
हर खुशी उससे जुदा हो जाए|

दिन का चैन न रात का करार मिले,
हर साँस उस की सज़ा हो जाए|

इंक़लाब को भी हो हैरत उस पर,
पल भर मे उस का खाना ख़राब हो जाए|

बर्क़ उड़े और इस तरह गिरे,
की दम भर में आशियाँ धुआं हो जाए|

जीये और जिंदा ज़रूर कहलाये,
मगर ज़िन्दगी उस की कज़ा हो जाए|

चांदनी रात हो या उजाला दिन का,
हर तरफ़ उसके लिए अँधेरा हो जाए|

क़यामत है गर्दिशे दौरा का सितम,
जिस पर भी हो तबाह हो जाए|

हम अपनी मुसीबतों का क्या गिला करें,
डरते है कहीं वक्त और ना खफा हो जाए|

खुदा महफूज़ रखे गर्दिशे दौरां से,
जिस पर भी नजर पड़े खाना ख़राब हो जाए|

वक़्त की फिर मुझे पर इनायत हो जाए,
अब मेरी कबूल मेरी ये दुआ हो जाए|

बहुत उठा चुका मैं 'शकील'अपनी खतओ की सज़ा,
अल्लाह माफ़ मेरी अब सज़ा हो जाए|

Tuesday, July 14, 2009

खामोशी

खामोशी की भी कोई ज़ंबा होती है,
खामोश मगर असरदार होती है|

कहेने को बहुत है मगर कंहा बात होती है,
बिना कहे जिगर के आर-पार होती है|

मुलाक़ात होती है, कंहा आवाज़ होती है,
निगाहों-निगाहों मैं बात होती है |

ना वो बात करते है ना हमसे बात होती है,
बिना ज़ंबा भी उन से दुआ-सलाम होती है|

खामोशी में भी उनकी कोई नई बात होती है,
कहे ना सके जो 'शकील' वो बात होती है|

खुशी

वक्त से खुशी उधार लेते हैं,
उदास ज़िन्दगी को बहार देते हैं|

कर के खुशामद गर्दिशे दौरां की,
अपने बिगड़े हालात संवार लेते हैं|

रचा के फसले गुलों की रंगीनियां,
धुंधले माहौल को निखार लेते हैं|

ये न कोई सौदा न तिजारत है कोई,
प्यार दे कर हम उनका प्यार लेते हैं|

जहाँ भी मिल जाए घनी छांव "शकील"
घड़ी-दो-घड़ी वक्त अपना गुज़ार लेते हैं|

Monday, July 13, 2009

मन्ज़िल

राज़ ऐ-ज़िन्दगी सुना रहा हूँ,
खली हाथ मैं जा रहा हूँ|

लोग
रहे है दर को मेरे,
बेबस कुचे से मैं जा रहा हूँ|

कारवा
हैं शामिल मय्यत में मेरी,
तन्हा,फ़ना होने मैं जा रहा हूँ|

कोई
रो रहा रहा, कोई हँस रहा है,
चुप -चाप कांधो पर मैं जा रहा हूँ|

कन्धा देने वालो देखों ज़रा,
जाते-जाते 'शकील' तुम को मंजिल मैं दिखा रहा हूँ|

Saturday, July 11, 2009

मौत

क्या सफेद, क्या सियाह किया ज़िन्दगी तेरे खातिर,
अरे! बेमुरव्वत दगा दे गई मुझे मौत के खातिर|

क्या-क्या गुमान करते थे जिस्मे कुव्वत पर ज़िन्दगी तेरे खातिर,
अरे! बेवफा तन्हा बेबस छोड़ दिया मुझे मौत के खातिर|

क्या-क्या सितम सहे हमने ज़िन्दगी तेरे खातिर,
अरे! तूने ये क्या सितम किया मौत के खातिर|

कभी रौंदा करते थे कदमो से ज़मीं को ज़िन्दगी तेरे खातिर,
अरे! बे-रहम आज तूने ज़मीं दोज़ किया मुझे मौत के खातिर|

क्या-क्या नही किया हमने ज़िन्दगी तेरे खातिर,
अरे! बे-दादगर तूने ये क्या सिला दिया मुझे मौत की खातिर|

कासिद तो बहुत आते रहे मौत के 'शकील' तेरे खातिर,
हम ही बे-ख़बर रहे मौत से ज़िन्दगी तेरे खातिर|

रास्ते

सफरे ज़िन्दगी में,
देखते-देखते कट गये रास्ते|

सफर दर-सफर मिल गये रास्ते,
कभी ठहरे तो कभी मिल गये रास्ते।

मंजिलो की जुस्तुजू में,
नये-नये बन गये रास्ते।

काम आयी जुनून की सरगर्मी,
बर्फ बन के पिघल गये रास्ते|

चलते-चलते सफर में,
कौसों निकल गये रास्ते|

कौन रोक सका है भला,
इन रास्तों के रास्ते|

हर मोड़ पर घर-घर में,
बन गए हजारो रस्ते|

जो रुक गये हम एक दम 'शकील
हम से आगे निकल गये रास्ते.