ये तो तुम थे जो हमें राह दिखलाते रहे,
हम तो मंज़िलों पर भी ठोकरे खाते रहे|
तेरी रहनुमाई से हम रहे साबित क़दम,
वरना सैकड़ों दौरें तूफाँ हमें मिटाते रहे|
वो तेरी मेहरबानियाँ वो तेरा रहमों-करम,
मुश्किलों में भी हमें खूब मज़े आते रहे|
हर मन्ज़िल औज पाकर फ़ानी बन गई,
तेरी यादों को हम बार-बार दोहरते रहे|
वकारे हस्ती रौशनी-ए-अमन से ख़ाली रही,
दो चिराग़ ज़िंदगी भर अँधेरे में टकराते रहे|
ज़िंदगी भर रहा ज़ुल्मते दौराँ में गुज़र-बसर,
फिर भी अख्वासों को हम नज़र आते रहे|
बेतकाज़ा कुछ न पाया बारगाहे इश्क़ में'शकील',
क़िस्मत में ही कुछ न था हाथ फैलाते रहे|
(औज-बुलन्दी, अख्वास-दुष्ट)
Tuesday, December 15, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।
ReplyDelete