Wednesday, March 24, 2010

इम्तिहाँ

चमन से दूर है गुलों का नाम अभी,
की इन्क्लाबे गुलशन है नातमाम अभी|

राहों से दूर मंज़िल का है मुक़ाम अभी,
कदमों को दे और क़ुव्वते रफ़्तार अभी|

क़दम-क़दम पे जहाँ होगा इम्तिहाँ अभी,
मिलेगें राह में ऐसे कुछ मुक़ाम अभी|

अभी तलब को कहाँ कैफे आगाही अभी,
कुछ एहेले अक्ल ले और जुनून से काम अभी|

हर गुल पर नज़र है बागबां की 'शकील',
की गुलिस्ताँ में है हजारों सितमगार अभी|

1 comment:

  1. हर गुल पे नज़र है बागबां की 'शकील '
    की गुलिश्तां में है हजारों सितमगार अभी

    बहुत खूब ......!!

    गज़ब का लिखते हैं ......!!

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