Friday, March 19, 2010

अशर्फुले मख्लूक

यूँ तो हर तरफ है हमारे आदमी ही आदमी,
पर नहीं कोई ग़म मे साथ देने वाला आदमी|

अशर्फुले मख्लूक है इस जहाँ मे आदमी,
पर होता है मुहताज न जाने कब आदमी का आदमी|

जो गया लोट कर न आये,तो किससे पूछे हाले आदमी,
रहते है किस हाल में दुनिया के उस पार आदमी|

है बेकार सारी कोशिशे उरूज,है क़िस्मत का मारा आदमी,
जब तलक क़िस्मत न चमकाए,न चमके आदमी|

ग़म का बोझ कब उठाते है फ़रिश्ते 'शकील',
ग़मज़दा है क़ायनात में आदमी से आदमी|

1 comment:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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