Tuesday, September 29, 2009

सफ़र


सफ़र-ए-ज़िंदगी में रास्ते तलाशते चलो,
बस्तियों में इन्सान तलाशते चलो|

हैवानियत के दौर में ख़ुद को बचा के चलो,
रास्ता न मिले तो रास्ते बना के चलो|

राहे मुश्किल है ज़रा संभल के चलो,
पिछे न देखिये अपने मुकाम पे चलो|

कयाम है ज़िंदगी का आखरी पड़ाव,
ज़िंदगी में अपना वक़ार बने के चलो |

खिजायों में चलो या बहारों में चलो,
काँटों से अपना दामन बचा के चलो|

रुकना नही सफ़र का मकसद चलते चलो,
मुश्किलों में 'शकील' हौसला बना के चलो|

Monday, September 28, 2009

रावण



रावण भी आज हम पर खूब मुस्करा रहा है,
उसे हर चेहरे में अपना चेहरा नज़र आ रहा है|

कहाँ ढूंढे वो मर्यादित पुरूष राम को इस भीड़ में,
उसे हर इन्सा अमर्यादित नज़र आ रहा है|

मिट जायगी उसकी हस्ती जल कर एक दम,
उसे हर इन्सा में छिपा बारूद नज़र आ रहा है|

बुराई पर अच्छाई की विजय घोष है चारो तरफ़,
उसे तो अच्छाई पर बुराई का राज नज़र आ रहा|

वो तो शर्मिंदा है अपनी करनी पर सरे-आम,
उसे हर तरफ बेशर्मी का आलम नज़र आ रहा है|

सत्य के उस युग में वो अकेला असत्य था,
उसे आज हर इन्सा झूठा नज़र आ रहा है|

हर इन्सा मुस्करा रहा है आज रावण वध पर'शकील',
पर आज दशानन्द हमारी हालत पर मुस्करा रहा है|

Thursday, September 17, 2009

जफ़ा

मुझ पर तेरी ज़ुल्मत कहाँ तक,
ये जफ़ा ये सितम कहाँ तक|

ये तेरे हुस्न की अदाए है याराँ,
तेरा ग़म आख़िर उठाये कहाँ तक|

सितम है या करम आजमाए कहाँ तक,
ज़ख्मे दिल अपने गिनाये कहाँ तक|

तोहमत है हम पर बे-वफाई का तेरा,
गिला अपने दिल का सुनाये कहाँ तक|

ये हुस्नों अदायों की घटाए कहाँ तक,
ये बिजलियाँ हम पर'शकील' गिरेगीं कहाँ तक|

Saturday, September 12, 2009

आईना

आईना भी अजब तमाशा है जहाँ में,
हर तमाशे का यहाँ नया अंदाज़ देखा|

आईने में जो अपना नक्शे सिंगार देखा,
बाहरी नक्श को आईने में बाहर देखा|

जो नक्श, आईने में हमने बाहर देखा,
जो देखा,सिर्फ़ एक आरिज़ी ख्वाब देखा|

जब आईने दिल में हमने झांक देखा,
पिनहाँ वक़ार को आईने दिल में साफ़ देखा|

क्या कहूँ आईने दिल का क्या अंदाज़ देखा,
ख़ुदा का नूर और उसका दीदार साफ़ देखा|

बेनज़ीर वक़ार की वो अज़्मत का क़माल,
जो न सुना न कोई दुसरा वक़ार देखा|

हमने दिल में वो उमड़ता इश्क़े यार देखा,
दिल के सिवा न कहीं और प्यारे-यार देखा|

दिल है या इश्क़ है बला का पैमाना 'शकील',
एक जहाँ का इश्क़ और शिकेबे यार देखा|

(पिनहाँ-गुप्त, बेनज़ीर-अनुपम,आरिज़ी-अस्थाई,वकार-गंभीरता
शिकेब-सब्र, अज़मत-सम्मान)




Friday, September 11, 2009

अरमां

गमे इश्क़ में हम यार मारे जायगे,
इस जहाँ से कहीं जब उस जहाँ जायंगे|

कुछ इरादा जो हमने किया उधर का,
हम नही उनमे जो बिन बुलाये जायगे |

तू जलाती है हमें ऐ शमा ! देखना,
फलक तक हमारी आहों के शौले जायंगे|

इश्क़ क्या है बतायंगे तुझे ऐ दरिये हुस्न ,
एक दिन हम भी समन्दर पार उतर जायंगे|

बहुत है तमन्नाए अभी 'शकील' अपनी बाक़ी,
होंगी सभी ज़मींदोज़, अरमां अधूरे जायगे|





Tuesday, September 8, 2009

खुदपरस्त

तू कैसा तेरा मैक़दा कैसा साकी,
तुझसे मिलकर भी है अब प्यास बाकी|

अब क्या करेगें मैक़दे का साकी|
न पीने की आरज़ू न अब तशनगी बाकी|

जब दो क़दम चलने को है मजबूर,
न सफरे शौक न अब मंज़िले तलब बाकी|

गुलिस्ताँ को लग गई खिजा की नज़र,
फूलों में शगुफ्तगी न अब ताज़गी बाकी|

खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
न रंजो अलम न अब दर्दो सितम बाकी|

इस खुदपरस्त जहां में अब 'शकील',
न दोस्ती न किसी से अब दुश्मनी बाकी|