Tuesday, September 8, 2009

खुदपरस्त

तू कैसा तेरा मैक़दा कैसा साकी,
तुझसे मिलकर भी है अब प्यास बाकी|

अब क्या करेगें मैक़दे का साकी|
न पीने की आरज़ू न अब तशनगी बाकी|

जब दो क़दम चलने को है मजबूर,
न सफरे शौक न अब मंज़िले तलब बाकी|

गुलिस्ताँ को लग गई खिजा की नज़र,
फूलों में शगुफ्तगी न अब ताज़गी बाकी|

खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
न रंजो अलम न अब दर्दो सितम बाकी|

इस खुदपरस्त जहां में अब 'शकील',
न दोस्ती न किसी से अब दुश्मनी बाकी|

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