तू कैसा तेरा मैक़दा कैसा साकी,
तुझसे मिलकर भी है अब प्यास बाकी|
अब क्या करेगें मैक़दे का साकी|
न पीने की आरज़ू न अब तशनगी बाकी|
जब दो क़दम चलने को है मजबूर,
न सफरे शौक न अब मंज़िले तलब बाकी|
गुलिस्ताँ को लग गई खिजा की नज़र,
फूलों में शगुफ्तगी न अब ताज़गी बाकी|
खवाहिशे तो है फ़ित्रते नफस की तड़फ
न रंजो अलम न अब दर्दो सितम बाकी|
इस खुदपरस्त जहां में अब 'शकील',
न दोस्ती न किसी से अब दुश्मनी बाकी|
Tuesday, September 8, 2009
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