जब इंसा से ही इंसा नफ़रत करेगा,
तो ख़ुदा से क्या मोहब्बत करेगा |
जब ख़ुद ही गुमराही पर चलेगा,
तो किस की क्या रहबरी करेगा|
बेअमल हो जब तेरी ही हयात,
तो फ़िर कैसे ख़ुद बंदगी करेगे|
उजाड़ के ख़ुद अपना चमने गुल,
तो कोई कैसे बागवानी करेगा|
बुझा दिए अपने ज़मीर के चिराग़,
तो दुनिया में कैसे रौशनी करगे|
जो ख़ुद बेहयाई की राह पर चलेगा,
फ़िर कोई क्या किसी से हया करेगा|
इन्सान तो वो है इन्सान 'शकील',
जो सारी मख्लूक़ से प्यार करेगा|
(बेअमल-निकम्मा/लोकाचार रहित,
हयात-जीवन,बेहया-बेशर्म,हया-शर्म,
मख्लूक़-मनुष्य,बंदगी-पूजा)
Friday, November 27, 2009
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बेहतरीन। बधाई।
ReplyDeleteइस ग़ज़ल का मतला बहुत ही खूबसूरत और अर्थपूर्ण है. बधाई.
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