जब से समझ में आये इसरार बे-ख़ुदी के,
उठाने लगे है पर्दे दिल से ख़ुद आगाही के|
जिस का सुरूर हस्ती जिसका ख़ुमार मस्ती,
ऐ दिल नवाज़ साक़ी दे दो-चार घूँट उसी के|
हर संगेदर का बोसा हर आस्ताँ पे सिजदा,
आये न फ़िर भी हमको आदाब ज़िन्दगी के|
मैं क्या बताऊँ था फ़क्र उम्रे रवाँ को हासिल,
मुश्किल से हाथ आये थे दो-चार दिन ख़ुशी के|
अब तो ज़िद है पायगे मर्हले मक्सदो के,
लेंगे न हरगिज़ अहसाँ अब बंदगी के|
ख़ुद्दारी ने दिए है अहसास अब हमें ख़ुदी के,
बुझने न देंगे'शकील'अब ये चिराग़ रौशनी के|
(इसरार-भेद,बेख़ुदी-अचैतन्य,आगाही-जानकारी\ग्यान,
ख़ुमार-नशा,सुरूर-हर्ष, संगेदर-मन्दिर का दरवाज़ा,
आस्ताँ-पीर का घर,आदाब-शिष्टाचार,मर्हले-गंतव्य )
Sunday, November 22, 2009
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इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।
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