जब इंसा से ही इंसा नफ़रत करेगा,
तो ख़ुदा से क्या मोहब्बत करेगा |
जब ख़ुद ही गुमराही पर चलेगा,
तो किस की क्या रहबरी करेगा|
बेअमल हो जब तेरी ही हयात,
तो फ़िर कैसे ख़ुद बंदगी करेगे|
उजाड़ के ख़ुद अपना चमने गुल,
तो कोई कैसे बागवानी करेगा|
बुझा दिए अपने ज़मीर के चिराग़,
तो दुनिया में कैसे रौशनी करगे|
जो ख़ुद बेहयाई की राह पर चलेगा,
फ़िर कोई क्या किसी से हया करेगा|
इन्सान तो वो है इन्सान 'शकील',
जो सारी मख्लूक़ से प्यार करेगा|
(बेअमल-निकम्मा/लोकाचार रहित,
हयात-जीवन,बेहया-बेशर्म,हया-शर्म,
मख्लूक़-मनुष्य,बंदगी-पूजा)
Friday, November 27, 2009
गमे -इश्क़
इश्क़ में गमे दिल दिया मुझे,
उपर वाले ने आख़िर क्या दिया मुझे|
मेरे दर्दे दिल के गमे मिज़ाज ने,
आख़िर मुस्कराना सिखा दिया मुझे|
लुत्फे मै की कोई बात नही साक़ी,
ज़हर ने भी खूब लुत्फ़ दिया मुझे|
जब भी गमे इश्क़ से घबरा गया,
इश्क़ ने ख़ुद सहारा दिया मुझे|
हयाते गफ़लत थी ज़िंदगी मेरी'शकील'
दफ्तन इश्क़े आवाज़ ने चोंका दिया मुझे|
उपर वाले ने आख़िर क्या दिया मुझे|
मेरे दर्दे दिल के गमे मिज़ाज ने,
आख़िर मुस्कराना सिखा दिया मुझे|
लुत्फे मै की कोई बात नही साक़ी,
ज़हर ने भी खूब लुत्फ़ दिया मुझे|
जब भी गमे इश्क़ से घबरा गया,
इश्क़ ने ख़ुद सहारा दिया मुझे|
हयाते गफ़लत थी ज़िंदगी मेरी'शकील'
दफ्तन इश्क़े आवाज़ ने चोंका दिया मुझे|
Sunday, November 22, 2009
चिराग़
जब से समझ में आये इसरार बे-ख़ुदी के,
उठाने लगे है पर्दे दिल से ख़ुद आगाही के|
जिस का सुरूर हस्ती जिसका ख़ुमार मस्ती,
ऐ दिल नवाज़ साक़ी दे दो-चार घूँट उसी के|
हर संगेदर का बोसा हर आस्ताँ पे सिजदा,
आये न फ़िर भी हमको आदाब ज़िन्दगी के|
मैं क्या बताऊँ था फ़क्र उम्रे रवाँ को हासिल,
मुश्किल से हाथ आये थे दो-चार दिन ख़ुशी के|
अब तो ज़िद है पायगे मर्हले मक्सदो के,
लेंगे न हरगिज़ अहसाँ अब बंदगी के|
ख़ुद्दारी ने दिए है अहसास अब हमें ख़ुदी के,
बुझने न देंगे'शकील'अब ये चिराग़ रौशनी के|
(इसरार-भेद,बेख़ुदी-अचैतन्य,आगाही-जानकारी\ग्यान,
ख़ुमार-नशा,सुरूर-हर्ष, संगेदर-मन्दिर का दरवाज़ा,
आस्ताँ-पीर का घर,आदाब-शिष्टाचार,मर्हले-गंतव्य )
उठाने लगे है पर्दे दिल से ख़ुद आगाही के|
जिस का सुरूर हस्ती जिसका ख़ुमार मस्ती,
ऐ दिल नवाज़ साक़ी दे दो-चार घूँट उसी के|
हर संगेदर का बोसा हर आस्ताँ पे सिजदा,
आये न फ़िर भी हमको आदाब ज़िन्दगी के|
मैं क्या बताऊँ था फ़क्र उम्रे रवाँ को हासिल,
मुश्किल से हाथ आये थे दो-चार दिन ख़ुशी के|
अब तो ज़िद है पायगे मर्हले मक्सदो के,
लेंगे न हरगिज़ अहसाँ अब बंदगी के|
ख़ुद्दारी ने दिए है अहसास अब हमें ख़ुदी के,
बुझने न देंगे'शकील'अब ये चिराग़ रौशनी के|
(इसरार-भेद,बेख़ुदी-अचैतन्य,आगाही-जानकारी\ग्यान,
ख़ुमार-नशा,सुरूर-हर्ष, संगेदर-मन्दिर का दरवाज़ा,
आस्ताँ-पीर का घर,आदाब-शिष्टाचार,मर्हले-गंतव्य )
Monday, November 2, 2009
अजब तमाशा

फ़लक की गर्दिशों के वो रंग देखे,
निज़ामे ज़िन्दगी के बदलते ढंग देखे|
जो रहते थे खुशियों में हमदम,
मुश्किलों में दुश्मनों के संग देखे|
रिश्तों को ऐसे बनते-बिगड़ते देखे,
कभी भाई तो कभी लड़ते जंग देखे|
साहिल पर बहुत जोशों उमंग देखे,
मझधार में नाखुदा भी दंग देखे|
कौन है अपना कौन है पराया,
बदलते मिज़ाजों के संगम देखे|
कभी खुशी तो कभी रंज देखे,
मौसमे बहाराँ के क्या-क्या तंज देखे|
दिलो को कभी संग तो कभी कंद देखे,
इंसानी फित्रतों के बहुत से शंग देखे|
कभी गंज खुले तो कभी तंग देखे,
किस्मत के बनते-बदलते यंग देखे|
दुनिया भी क्या अजब तमाशा है'शकील',
पल-पल बदलते उसके सब रंग देखे |
(फ़लक-आसमान,निज़ाम-व्यवस्था, संग-साथ,साहिल-किनारा,नाखुदा-नाविक, रंज-ग़म,कंद-मीठा,तंज-ताना, फ़ित्रत-प्रकृति,संग-पत्थर,शंग-चंचल,यंग-क़ानून,गंज-ख़जाना)
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